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स्मरण : सत्रह साल पहले आख़िर उस दिन क्या हुआ था जब शहीद कर दिए गए थे महेंद्र सिंह, जानिये हाल-ए-ज़ार

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विनोद कुमार, रांची:
आज के ही दिन 2005 के विधानसभा चुनाव के कुछ माह पूर्व कामरेड महेंद्र सिंह की निर्मम हत्या कर दी गयी थी। उनकी हत्या किसने की।  इसको लेकर भ्रम की स्थिति कुछ दिनों तक रही। लेकिन मेरा नज़रिया पहले दिन से साफ था कि उनकी हत्या माओवादियों ने की है। वजह यह कि माओवादी कभी भी यह नहीं चाहते कि उनके प्रभाव वाले इलाके के कोई जन नेता लोकप्रिय हो और खुला जन संघर्ष हो। लेकिन महेंद्र सिंह की वजह से वे बगोदर और उसके आस पास के बड़े क्षेत्र में घुसपैठ नहीं कर पा रहे थे। उनकी कार्यशैली से विक्षुब्द्ध महेंद्र सिंह ने एक बार झूमड़ा पहाड़ी तक उनका पीछा भी किया था अपने सैकड़ों समर्थकों के साथ।

हां, यह संभव है कि सत्ता-पुलिस प्रतिष्ठानों में बैठे कुछ लोगों ने माओवादियों का इस्तेमाल किया हो। क्योंकि उनदिनों वे अनेक फ्रंटों पर लड़ रहे थे। माओवादियों के शीर्ष नेतृत्व ने बाद में यह कह कर सफाई दी कि उनकी हत्या का फैसला नीचे के कैडरों ने लिया। अब जो भी हो, यह तो स्पष्ट है कि हत्यारे उन्हें ठीक से पहचानते नहीं थे। एक चुनावी सभा के दौरान वे घटनास्थल पर पहुंचे और पुकारा- कौन है महेंद्र सिंह? महेंद्र सिंह चाहते तो बचने की कोई जुगत करते, लेकिन उन्होंने बेखौफ कहा, मैं हूं महेंद्र सिंह।

 

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उपन्यास ‘रेडजोन’ में घटना का जिक्र 
‘‘ महेंद्र सिंह खुश हैं. वाममोर्चा इस बार यूपीए के साथ नहीं है। सीटों को लेकर तालमेल नहीं हुआ। इसी बहाने सही, वाममोर्चा अलग होकर, अपने बलबूते चुनाव मैदान में उतर रहा है। माले उनके साथ गठबंधन में शामिल होती हैं। मानव से उनकी बात नहीं हो पाती। हां, उनका संदेश पहुंचा है।
‘मैं कल नामांकन करने जा रहा हूं..और उसके बाद चुनाव अभियान की शुरुआत।’
और फिर स्तब्ध कर देने वाली खबर आती है। महेंद्र सिंह नहीं रहे। उनकी हत्या कर दी गयी। कैसे? किसने? तरह-तरह की बातें। बगोदर कंस्टिट्यूवेंसी के ही दुरगी धवइयां गांव की तरफ चुनाव प्रचार के लिए गये थे। वह इलाका माओवादियों के प्रभाव क्षेत्र में है। भाषण समाप्त कर अपनी मोटर की तरफ बढ़ ही रहे थे कि मोटर साइकल पर सवार शूटरों ने करीब आ कर पूछा-‘महेंद्र सिंह कौन है?’
बेखौफ शख्सियत ‘मैं हूं महेंद्र सिंह.’
और जबाब में एसएलआर से निकली ताबड़तोड़ गोलियां। खून से नहा गये महेंद्र सिंह। बहुत देर तक जमीन पर बिछे रहे। झारखंडी जनता की अस्मिता और स्वायत्तता के संघर्ष पथ पर चलने वाले महेंद्र सिंह. हुलगुलानों की शहादत परंपरा के अप्रतिम योद्धा। ’’
आईये हम उस कड़ी का अंतिम अंश पढ़े जो ‘रेडजोन’ में नहीं। 
‘रेडजोन’ आप आनलाईन एमेजोन से खरीद सकते हैं या फिरायालाल चैक, रांची, में एक छोटी सी किताब दुकान ‘ज्ञानदीप’ से भी खरीद सकते हैं. इसे दिल्ली के प्रकाशक ‘अनुज्ञा बुक्स’ ने प्रकाशित किया है।


मानव मुग्ध भाव से महेंद्र सिंह की बातें सुन रहे थे। मलिन कपड़े और अति साधारण रूपरंग वाले महेंद्र सिंह उनके सामने एक नायक बन कर उभर रहे थे। साथ ही उन्हें अपने आदिवासी प्रखंड पोटका में बिताये कुछ वर्षों की स्मृतियां एकबारगी ताजा हो गयीं। वे उन स्मृतियों को महेंद्र सिंह के साथ साझा करने के लिए अकुला उठे।
‘‘महेंद्रजी, मैं ने आपको बताया था न कि जीवन के शुरुआती दिनों में मैंने भी वाहिनी के पूर्णकालिक सदस्य के रूप में सिंहभूम के पोटका प्रखंड में काम किया था। वहां हमने मजदूर किसान समिति के नाम से एक संगठन बनाया था और बड़ा सिगदी में कार्यालय। दिलीप नाम के एक भूमिज युवक के परिवार ने अपने घर की बाहर वाली कोठरी हमे इस्तेमाल के लिए दिया था जिसके सामने कई बड़े-बड़े पत्थर बिखरे थे। छोटी-बड़ी कई सार्वजनिक सभाएं, बैठकें हमने वहीं पर की। औरत-मर्द की समान मजूरी के लिए आंदोलन की शुरुआत उसी गांव से हमने की थी. फूलमणि, जीरन, मजीत, विभीषण हमारे आंदोलन के साथी थे।’’
मानव बोल तो गये लेकिन एकबारगी सकुचा भी गये. वे महेंद्र सिंह की कहानी सुनने आये थे, अपनी कहानी उन्हें सुनाने नहीं। पता नहीं, महेंद्र सिंह को यह सब सुनकर कैसा लगा हो! लेकिन वे स्थितप्रज्ञ हो उनकी बात सुन रहे थे।
‘‘एक सवाल है महेंद्रजी, पंचायती व्यवस्था तो पहले से मौजूद रही होगी. फिर आपकी ग्रामसभा को मान्यता कैसे मिली?’’
‘‘पंचायती व्यवस्था सोसायटी में मौजूद तो थी, लेकिन पंचों को फीस देकर संबंधित पक्षों को लाना पड़ता और जब पंचायत शुरू होती तो दोनों पक्षों से पंचखर्चा अलग से लिये जाते. वे जुर्माना भी वसूलते और दोनों पक्षों को दोषी करार देकर उनसे पैसा उगाहते, जबकि फैसले को लागू करने की कोई जवाबदेही उनकी नहीं होती. असहमत हैं तो कचहरी जाइये और फिर उन्हीं पंचों में से एक एक पक्ष का और दूसरा, दूसरे पक्ष का पैरवीकार बन जाता. ग्रामीणों को लूटने का यह एक बड़ा जरिया था।’’
महेंद्र सिंह पल भर के लिए रुके और फिर बेहद तीखे स्वर में बोले, ‘‘और जानते हैं पंच कौन बनते थे? वे लोग जो नील-टीनोपाल अपनी घोती में लगाते और जिन्हें शारीरिक श्रम से कोई मतलब नहीं रहता था। ग्राम सभा ने सिरे से पंचायत के इस सिस्टम को खारिज कर दिया। पंचखर्चा व जुर्माने की सिस्टम को ही समाप्त कर दिया गया। उसकी जगह हर्जाने के सिस्टम को लागू किया. पंचायत की इस प्रणाली ने दलालों और भाड़े वाले पंचों की आमदनी के स्रोत एवं उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा पर चोट की और इस वजह से हमारी ग्रामसभा और ज्यादा लोकप्रिय हुई...’’
 

 

 

दोपहर ढलती जा रहा थी, बातें अंतहीन। इस बीच एक छोटी-सी लड़की दरवाजे की ओट में आकर खड़ी हो गयी। महेंद्र सिंह की नजर उस पर पड़ी। उन्होंने इशारे से उसे अपने पास बुलाया और गोद में उठा लिया। पल भर में वे एक सोशल एक्टिविस्ट से बदल कर अपनी बेटी को प्यार करने वाले स्नेहिल पिता बन गये थे। कुछ ही देर बाद कई लोग मिलने-जुलने पहुंच गये. दिनेश भी उनके साथ था. महेंद्र सिंह ने एक युवा साथी की तरफ इशारा करके बताया, ‘यही है बालेश्वर सिंह,.. और ये कुंजो यादव जिनके बारे में मैंने आपसे चर्चा की थी।’
मानव ने सबों से हाथ मिलाया। फिर दिनेश से पूछा, ‘आप कहां गायब हो गये थे?’‘हम लोग प्राइमरी स्कूल में बैठे थे। बहुत दिनों बाद यहां आया तो लोगों से मिलना-जुलना हो रहा था..’
‘हम लोगों को अब लौटना चाहिए।’
महेंद्र सिंह ने हस्तक्षेप करते हुए कहा, ‘आज रात यहीं रुक जाइये. कल सबेरे चले जाइयेगा. हम लोगों ने एक बांध बनाया है. वह आपको दिखाना चाहता हूं।’
मानव को घर के बाहर रुकने की आदत नहीं थी. बहुत जरूरी होने पर ही वे घर के बाहर कहीं रात बिताते थे।
‘नहीं, मुझे जाना होगा. शहर में कोई वारदात या छोटी-मोटी खबर हुई होगी तो उसे भेजना होगा. खबर छूटने पर संपादक नाराज होते हैं. फिर कभी फुर्सत से आऊंगा।’
‘ठीक है चले जाइयेगा। पहले आपको अपने बगल का एक स्कूल दिखा दूं। प्राइमरी स्कूल है और दो कमरे अब तक बन पाये हैं। सरकार ने पैसा उपलब्ध कराया था. निर्माण कार्य ग्राम सभा ने स्वयं किया। इसलिए सीमित राशि में भी शानदार कमरे बने हैं। उसके पीछे बाग-बगीचा लगाया गया है. ऐसा बागीचा आप राज्य के किसी अन्य प्राइमरी स्कूल में नहीं पायेंगे।’

 

 


मानव ने अपना कागजपत्तर समेटा, उन्हें बैग में रखा और बैग कंधे पर लटका कर चलने के लिए तैयार हो गये. स्कूल करीब ही था, सभी उस दिशा में बढ गये।
‘78 में इस गांव के आसपास दतवन तोड़ने लायक भी पेड़ नहीं बचे थे। पुराने लोगों की समझ थी कि जंगल से कोई लाभ नहीं, उल्टे विवाद होता है। इसलिए लोगों ने पेड़ लगाना ही छोड़ दिया. ग्रामसभा ने लोगों को भरोसा दिया कि जो जंगल वे लगायेंगे उस पर उन्हीं का हक होगा। उसके बाद उन्होंने पेड़ लगाने में रुचि लेनी शुरू की। और आज खम्भरा में करीब डेढ़ सौ एकड़ जमीन पर जंगल है...’ यह सब बताते महेंद्र सिंह का उत्साह छलका जा रहा था।
कुछ ही देर में वे स्कूल के सामने पहुंच गये। सामने दीवार पर लिखा था, ‘खम्भरा प्राइमरी स्कूल।’
सामान्य-सा स्कूल। गर्मी की छुट्टियां थीं, इसलिए बच्चे नहीं थे। परिसर साफसुथरा था. और पीछे का बगीचा सचमुच सुदंर था। उसमें आम, लीची, अनार, अमरूद, कटहल आदि के पेड़ लगे थे। कुंजो यादव बोले - ‘यह सब ग्रामीणों की मेहनत का नतीजा है. वैसे, उन्होंने तय किया है कि बगीचे से जो भी आमदनी होगी, उसे स्कूल पर ही खर्च किया जायेगा।’
बगीचे के एक कोने में मेहनतकश महिला-पुरुष जोड़े की एक अत्यंत कलात्मक प्रतिमा खड़ी थी. नीले आसमान में तिरते बादल के नीचे उसकी शोभा देखते बनती थी. मानव उस प्रतिमा को कुछ देर तक देखते रह गये।
महेंद्र सिंह बोले, ‘संथाल जीवन पर चित्र श्रृंखला बनाने वाले राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित मनोज पंकज ने यह प्रतिमा बनायी है। बनारस से वे इसके लिए खास तौर पर आये, यहां रुके और बिल्कुल निःशुल्क यह काम किया। वे ग्रामसभा के कामकाज से प्रभावित थे।’
कुछ देर वे लोग इसी तरह बातचीत करते रहे, फिर मानव चलने के लिए तैयार हो गये. सबों से हाथ मिलाया, महेंद्र सिंह से कुछ ज्यादा गर्मजोशी से।
‘तो कामरेड, चलता हूं. फिर मुलाकात होगी।’
दिनेश ने मोटर साइकिल स्टार्ट कर दी और उसे आगे बढाया. मानव को लगा जैसे वे अपने किसी आत्मीय से, सहमना साथी से बिछड़ रहे हों... गांव के घरौंदानुमा मिट्टी के घरों को पीछे छोड़ते हुए वे एक बार फिर उस खुली सड़क पर पहुंच गये जिसकी परती जमीन दूर पर्वत श्रृंखलाओं से मिलती प्रतीत होती थी और ढलती सांझ में और भी मनोरम हो उठी थी।

 

(लेखक 74 के जेपी आंदोलन में सक्रिय रहे। दो दशक तक पत्रकारिता भी की। समर शेष है, रेड जोन और मिशन झारखंड टाइटल से तीन उपन्यास प्रकाशित। इसके अलावा आदिवासी संघर्ष गाथा, शोध परक पुस्तंक के साथ टुंडी की ट्रैजडी, काठी कुंड की आग और कलिंगनगर संघर्ष पर लघु पुस्तिकाएं छपी हैं। संप्रति देशज स्वर पत्रिका का संपादन।)

 

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।